भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बापोॅ रो सराध / नवीन ठाकुर 'संधि'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मरी गेलोॅ हमरोॅ बाप,
रोज कानैॅ छीॅ दिनरात।
कानतें-कानतें माथोॅ दुःखाय गेलोॅ,
तइयो न बाप घुरी केॅ आयलोॅ।
केना केॅ करबोॅ हमेॅ सराध।।

हम्में गेलां पूरोहितोॅ रोॅ द्वार,
कहलां करोॅ हमरा उद्धार।
कहलकोॅ सराधोॅ में होय छै नगद,
खरचा लागतौॅ तुरते तुरत।
पूरोहितों नै देलकोॅ हमरा साथ।
मरी गेलोॅ हमरोॅ बाप।

जजमान, हल्लेॅ किरिया रोॅ परचा,
पढ़लॉ सें बुझैलोॅ ढ़ेरी खरचा।
अन्ने-पानी पैसा कौड़ी आरो गाय,
ऊपरोॅ में बापें दूध खैतोॅ देलकोॅ बताय।
बाबा लग कुच्छू नै चललोॅ हमरोॅ बात।
मरी गेलोॅ हमरोॅ बाप।

रीन महाजन करी किरिया पुरैलौं,
सब पैसा यही में बुड़ैलौ।
हुनी गाय लेलकोॅ चललोॅ घोॅर,
हम्में दौड़ी केॅ छेकलां डहोॅर
है तोरोॅ अच्छा नै छौं बात।
मरी गेलोॅ हमरोॅ बाप।