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बाबर / मनोज पाण्डेय

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तुमने अपने बेटे से
अपने लिए
उसकी जवानी नहीं मांगी
न ही
उसे चौदह क्या, दो दिन के लिए भी
दिया वनवास
कि निभ जाये, तीसरी पत्नी को दिए
"प्राण जाए पर वचन न जाए"
की कुल रीति

न ही
बुढौती में उठने वाली
वासना की छणिक कौंध में;
अपने बेटे से करवाई
भीषण प्रतिज्ञा

न ही
जिंदगी के बाकी बचे दो चार दिनों न
में 'जनम-जनम का साथ निभाने' आई
चौथी-पाचवीं... पत्नी के बहकावे में
अपने बेटे की आँखों में
उसके अपने हाथों से
गर्म सलाखें डलवाई

मैं...
न अशोक
न शांतनु
न दशरथ
और
न ही ययाति

मैं...
तुम्हारी तरह पिता होना
चाहता हूँ
बाबर