बाबा अब किस्से नहीं सुनाते / जोशना बनर्जी आडवानी
बाबा के कंठ मे ग्रह बसा था
उनके किस्सों मे नियाग्रा फौल्स
की उग्रता का भरसक शोध था
काला सागर और बुल्गेरिया
के क्षेत्रफल उनकी हथेलियों
पर आकर ठिठका करते थे
रेलगाड़ी से उठता धुआँ जिन्न
बन जाता था जादू से यकायक
तूफान तानाशाही करते थे
कठठोकरा टकटक करके
संगीत बुन दिया करता था
बेलें मटकती बलखाती हुई
कंचनजंगा चढ़ जाती थीं
कई कई अरब वर्षो की घड़ी
वक्त की झालर पर ठहरती थी
आलू बुखारे के खेतों मे
जुगनू जासूसी किया करते थे
जैतून के पेड़ पर चाँद
ध्रुवस्वामिनी को ताकता था
सूरज के सारथी गिलहरी
के कोटर मे बौने बन
अपनी तनख्वाह गिनते थे
लोहार के कँधे पीटमपीट मे
अपना मुँह लटका लेते थे
बाबा अब किस्से नहीं सुनाते
जीवन गढ़ती है ऐसे किस्से
जो बाबा को दोहराते हैं ....
नियाग्रा फौल्स और काला
सागर आँखों की गंगोत्री
से जब जब बहते हैं तो
हौसलों के तूफान अब
भी तानाशाही कर उठते हैं
तलवों की बेलें कंचनजंगा
झटपट चढ़ जाती हैं
ध्रुवस्वामिनी अब भी
नवयौवना है लेकिन चाँद
थोड़ा सा मनचला हो गया है
अंधेरी सुरंगों मे जुगनू टौर्च
लिये आगे पीछे चलते हैं
सूरज के नीचे तनख्वाह
गिनते ही तनख्वाह से
सन्यास मिल जाता है
लोहार का लटका हुआ मुँह
देखकर एक और दिन
शान से जीना आ जाता है
एक बच्ची कहीं सोती है
एक औरत कहीं जागती है
पर बाबा अब किस्से नहीं सुनाते