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बाबा आदम का ज़माना / विपिन चौधरी

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दूध उबलते हुए और भी निखर जाता है
ठीक वैसे ही
बाबा आदम का ज़माना आज और भी धवल रूप में याद आता है

हम आज भी एक लम्बी सी ठंडी आह के साथ
बाबा का उस सस्ते ज़माने की बातें करते हैं
जिसकी कल्पना मात्र से ही बदन पर सनसनी चढ़ती-उतरती है

हम तीन सौ रूपये के किलो घी वाले ज़माने से
सीधे बाबा आदम के ज़माने में जाते और
एक आना में एक सेर देसी घी की बात करते न अघाते

बाबा तुम्हारे उस खरे - खांटी -पारदर्शी- सरल ज़माने में नज़दीक खुदा
कपास का एक सूत भी नहीं चाहता था
पर तुम्हें तो एक लम्बा-चौड़ा संसार बसाना था

उन दिनों बाबा आदम ने जान लिया
सपनों को आकाश की खूंटी पर टांग कर
धरती पर पाँव पसार सोया जा सकता है
और भी कई बातें बाबा और उसके
चेलो ने जान ली

पर ठीक आदम- हव्वा के शाप से मिलता-जुलता शाप बाबा आदम को मिला
कि हम उनके पूर्वज
बाबा को याद करते ही एक चकव्यूह में उलझ जाते हैं
और उससे बाहर निकलते हैं तो सांसारिक माल असबाब के साथ

ओह तुम बाबा आदम और
तुम्हारा वो ज़माना