बाबा कवने नगरिया जुआ खेललऽ /भोजपुरी
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बाबा कवने नगरिया जुआ खेललऽ
कि हमरा के हारि अइलऽ, हमरा के हारि हइलऽ
बेटी अवध नगरिया जुआ खेललीं तऽ
तोहरा के हारि अइलीं, तोहरा के हारि अइलीं ।
बाबा कोठिया-अँटरिया काहे ना हरलऽ
कि हमरा के हारि अइलऽ, हमरा के हारि हइलऽ
बेटी कोठिया-अँटरिया हमार लछिमी तऽ
तू हऊ पराया धन तू हऊ पराया धन ।
बाबा भैया-भउजइया काहें ना हरलऽ
कि हमरा के हारि अइलऽ, हमरा के हारि हइलऽ
बेटी पुतवा-पतोहिया हमार लछिमी तऽ
तू हऊ परायाधन-तू हऊ परायाधन ।
बाबा गइया-भँइसिया काहे न हरल कि
कि हमरा के हारि अइलऽ, हमरा के हारि हइलऽ
बेटी गइया-भँइसिया हमार लछिमी तऽ
तू हऊ पराया धन तू हऊ पराया धन ।
भावार्थ यह विवाह-गीत है । लड़की अपने पिता से पूछती है कि बाबा! आप किस नगर में जुआ खेल कर आ रहे हैं जहाँ आप मुझे हार आए हैं? पिता कहता है कि मैं अयोध्या (जिस जगह लड़की की शादी हो रही है उस गाँव या शहर का नाम यहाँ जोड़ दिया जाता है) में जुआ खेलने गया था और हे बेटी! वहीं पर तुम्हेम हार आया । पुत्री कहती है कि बाबा! आपके पास तो बड़ी सम्पत्ति थी। महल कोटे अटारियाँ थीं । इन्हें आपने दाँव पर क्यों नहीं लगाया ? इन्हें हारना चाहिए था आपको। आप मुझे ही क्यों हार आए? पिता का जवाब यह है कि ये सारी सम्पदा मेरी लक्ष्मी है, मैं उन्हें क्यों हारता ! तब बेटी कहती है कि घर में से अगर किसी को हारना ही था तो भैया-भाभी भी तो थे? आख़िर आपने उन्हें दाँव पर क्यों नहीं लगाया? जनक का उत्तर यह होता है कि पुत्र-पुत्रवधू तो मेरे अपने हैं । हे बेटी तू पराया धन है इसलिए तुम्हे मैं हार आया । आगे तुम्हारी क़िस्मत । मैं अपना धन कैसे हारता ? ये हारने या जुए में लगाने की वस्तु नहीं हैं । बेटी कहती है कि हे पिता, क्या मैं तुम्हारी गाय-भैंसों से भी गई-गुज़री हूँ कि तुम उन्हें हारकर आने की जगह मुझे हार आए और वह रोती हुई विजेता के खूँटे पर बँधने के लिए विदा कर दी जाती है।