भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाबूजी के लिए / सुधाकर, कुसुमाकर, सतीश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रस्तुत पुस्तक ‘गीत विजय के’ प्रख्यात कवि श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’ की रचनाओं का तीसरा संकलन है। इसमें पूर्व ‘माटी अपने देश की’ तथा ‘कारवां उम्मीद का’ शीर्षक से दो संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। इन दोनों ही पुस्तकों की विद्वतवर्ग ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और हमें इस पुनीत कार्य को और आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है। वैसे तो बाबूजी ने हर विषय पर काव्य रचना की है, लेकिन उनके प्रिय विषय रहे मातृभूमि और महापुरुषों के गौरव-गान।

बाबूजी ने अपने जीवन में गीत-ग़ज़ल, ख़्याल, छंद, दोहा बहुत कुछ लिखा; और जो भी लिखा, उच्च स्तर का। इस पुस्तक में भी नए व पुराने छंदों का समन्वय है। पुराने छंद जो आजकल प्रचलन में नहीं हैं और देखने को नहीं मिलते। छंदों में मात्रिक व वार्णिक दोनों तरह के छंद जैसे कवित्त, सवैया, दोहा, हरिगीतिका, रोला आदि। जिस छंद का भी आपने प्रयोग किया, पूरे अधिकार के साथ और त्रुटिहीन। प्रत्येक रचना में भाषा का माधुर्य व शब्दों का सामंजस्य उच्च कोटि का है।

हरियाणा का भिवानी जनपद प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। यहीं पर आपका जन्म हुआ। कविता में रुचि आपको बाल्यकाल से ही रही। और विद्वान कवि व छंद शिल्पी श्री लक्ष्मीनारायण शर्मा ‘कृपाण’ जैसा गुरु पाकर उच्चकोटि के कवि के रूप में उभरे। भिवानी शहर में साहित्य संगम व बज़्मे-अदब जैसी संस्थाओं के तत्वावधान में कवि गोष्ठी व शायरों की महफिल का आयोजन बराबर होता रहता था। और शहर के प्रायः सभी स्ािापित कवि व शायर इसमें भाग लेते थे। तथा कितने ही नवयुवक कुछ सीखने की ललक लिए इनमें सम्मिलित होते थे। कई उदीयमान व नवोदित कवियों को बाबूजी ने कविता और पिंगल की बारीकियां सिखाईं। जो आज भी उन्हें गुरुजी के रूप में स्वीकार करते हैं। इनमें से कितने ही ऐसे हैं, जिन्होंने अपने गुरु के नाम को सार्थक किया और काव्य जगत में प्रतिष्ठा हासिल की।

बाबूजी ने शृंगार रस में यद्यपि बहुत कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा बहुत ही उत्तम लिखा। मैं शृंगार रस का एक हरिगीतिका में लिखा छंद यहाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ-

पहने हुए पट इंद्रधनुषी रंग के प्रमुदित मना।

मिल नृत्य करतीं रमणियां वातावरण मोहक बना॥


स्वर पायलों के कर्ण कुहरों में सुधा सी घोलते।

सुनकर जिन्हें अविचल हृदय मुनिधीरजन के डोलते॥


होती यती योगीजनों को ध्येय से अपने विरति।

मन की प्रगति अवरुद्ध होती, देख नर्तन की सुगति॥


इस छंद में भाषा का लालित्य तथा शब्दों का तालमेल मनमोहक है।

प्रस्तुत पुस्तक में राष्ट्रवादी रचनाओं को संकलित किया गया है। तथा अनेक गीत मानव मूल्यों पर आधारित हैं। रचनाओं में ओजपूर्ण शब्दों का सामंजस्य अद्भुत है। आशा करते हैं कि ‘गीत विजय के’ काव्य-संग्रह को भी सभी साहित्य प्रेमियों का आशीर्वाद उसी तरह मिलेगा जिस प्रकार पूर्व प्रकाशित पुस्तकों को मिलता रहा है।

-विनीत पुत्र

सुधाकर, कुसुमाकर, सतीश