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बाबूराम के ईश्वर / कुमार कृष्ण

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बाबूराम जानता है बनाने
तरह-तरह के ईश्वर
उसके पिता करते थे यही काम
बनाते थे कई रंगों के ईश्वर
छुपा लेते थे रात उतरने पर
पटसन की फटी बोरियों के नीचे
बाबूराम ने गुजार दिए पिता के तम्बू में
बड़े-बड़े चालीस बरस
आवाज़ लगाकर गली-गली बेचता रहा ईश्वर

अपनी छत से लगाई एक दिन
कमलाबाई ने ज़ोर से आवाज़-
'रुको बाबूराम, मैं कब से ढूँढ़ रही हूँ तुम्हें
तुम्हारे ईश्वर ने करवा दिया
मेरी बड़ी बेटी का ब्याह
मुझे खरीदना है एक और ईश्वर
ब्याहना है छोटी बेटी को भी
तुम्हारे ईश्वर हैं साक्षात् देवता
जो भी माँगो उनसे दे देते हैं झट से
कर देते हैं पूरी मन्नत'

मन-ही-मन सोचता रहा बाबूराम-
उसने बना डाले आज तक लाखों ईश्वर
माँगता रहा सभी से-
छोटा सा छप्पर
दो वक्त की रोटी
बच्चों के लिए पाठशाला
कितनी अजीब बात है उसे कुछ भी नहीं दिया
ईश्वर ने कभी
मुश्किल से हो पाई एक वक्त की रोटी
कई बार करना पड़ा फ़ाक़ा
बच्चे बीनते रहे कचरा अपनी माँ के साथ
वह बना-बना कर बेचता रहा-
नये-नये ईश्वर
काश! सभी के दिमाग़ में चली जाए
कमलाबाई की सोच
बिक जाए आधे दिन में ही पूरी टोकरी
पत्नी को मिल जाए मुक्ति फटी धोती से
बच्चे सीख लें दस का पहाड़ा
तम्बू को मिल जाए नया तिरपाल
नंगे पैरों को जूते
हर दरवाज़ा लगे माँगने-
बाबूराम के ईश्वर

बाबूराम जान चुका है पूरी तरह-
ईश्वर होने का सच
जान चुका है तम्बू के अन्दर-बाहर खड़े
ईश्वर की ताक़त
वह जान चुका है-
उसका पसीना ही जला सकता है चूल्हा
मिटा सकता है परिवार की भूख
उसके हाथ, नंगे पाँव ही हैं ईश्वर।