भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाबू हो बाबू हो, डोॅर लागै छै / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाबू हो बाबू हो, डोॅॅर लागै छै ।
केकरोॅ डोॅर बेटी, केकरोॅ डोॅर ?

कैलू दा केकरा सें की-की नी सिखतौं
भीती पर कुछ्छू सें कुछ्छू नी लिखतौं
देखौ नी, अक्षर पर अक्षरे ही दिखतौं
हेकरै की कहोॅ चुनाव कहै छै
बाबू हो बाबू हो, डोॅर लागै छै ।

हिन्नेॅ या हुन्नेॅ तोंय जन्नेॅ भी हेरोॅ
देखौ नी खम-खम सिपाही के जेरोॅ
गाँवोॅ केॅ लागलै शनिचरा के फेरोॅ
बोलै छै सब्भे, पर कोय नै सुनै छै
बाबू हो बाबू हो, डोॅर लागै छै ।

हौ देखोॅ हुन्नें जनानी केॅ बोलतेॅ
मरदोॅॅ के साथोॅ पर टुकनी रं उड़तेॅ
माय केॅ की डांटै छौ घुघटोॅ उठैतैं
यें तेॅ मरदाना केॅ माँत करै छै
बाबू हो बाबू हो, डोॅर लागै छै ।

खाली चुनावे के खेल आबेॅ खेलोॅ
पोलटिस के चक्कर में सब के मन मैलोॅ
मीटिंग के पीछू छै सब्भे उमतैलोॅ
की जिन्दाबाद, मुर्दावाद बोलै छै
बाबू हो बाबू हो, डोॅर लागै छै ।

जैठां कि है रं, ऊ गाँव में नै जइयोॅ
भूलौ सें हमरा नै वैठां बिहैइयोॅ
डोली सेॅ पहलें ही अर्थी उठैइयोॅ
जिनगी भर हेनोॅ के दर्द सहै छै
बाबू हो बाबू हो, डोॅर लागै छै ।