बायें चलो, बायें / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
कोटाल के ज्वार में, अपना सिर ऊँचा कर
पथरीली ज़मीन पर, तोल-तोल कर पाँव बढ़ा रही है आगे
दुर्दम्य आकांक्षा।
प्रचंड क्रोध खींचकर चढ़ा रहा है
धनुष के सिरे पर प्रत्यंचा।
बायें चलो, भाई
बायें-
काली रात की छाती चीरकर
चलते चलो
हम अपने दोनों हाथों से उठा लाएँ
अपने ही रक्त से रँगी
रंगीन सुबह।
बायें चलो, भाई
बायें-
टिड्डी-दल को खदेड़कर
हमीं तो होंगे, इन खेतों के सम्राट्।
पकी फ़सल के सोने से
हम मढ़ देंगे दिग्-दिगन्त को।
फाँसी के फनदे, जेल, गैस और गोलियों को झेलकर,
अन्धकार को अपने दोनों पैरों से कुचल डालो
फोड़ दो गिद्ध की आँखें-
बढ़ते चलो
चलो कि हम सुख-शान्ति से जी सकें।
कोटाल के ज्वार में, सिर ऊँचा किये
पथरीली ज़मीन को पाँवों से रौंदती
ओजपूर्ण जुलूस के साथ बढ़ती चली आ रही है
दुर्दम्य आकांक्षा।
प्रचंड क्रोध
खींचकर चढ़ा रहा है-
धनुष के सिरे पर प्रत्यंचा।