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बारम्बार / उर्मिल सत्यभूषण

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बारम्बार विदाई बेला
आई है जीवन में
बारम्बार रुलाई फूटी
है मन के प्रांगण में
बारम्बार पटख कर
मुझको बढ़ गई जीवनधारा
बारम्बार पिया है मैंने
आंसू का जल खारा
बारम्बार ये पौध पनीरी
दूर-दूर लग जाती
बारम्बार मगर मिट्टी
को टीस एक दे जाती
बारम्बार गौरेया बच्चों
को उड़ना सिखलाती
बारम्बार खुले डैनो को
खुला गगन दिखलाती
बारम्बार क्रोध में भरकर
रक्तिम आँख निहारे
बारम्बार प्यार की थपकी
दे दे दिये सहारे
बारम्बार कहा है मैंने
प्रिय आत्मन् जाओ
बारम्बार दिया आशीष
‘जाओ मंज़िल पाओ
बारम्बार गुरु शिष्यों के
बीच कसा जो बंधन
बारम्बार किया है उसने
जीवन का अभिनंदन।