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बारहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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मधुमय बसन्त के आँगन में।
यह कौन पहन पीली साड़ी स्वच्छन्द घूमती है मन में?
नूतन चटकीली कलियों में मिलकर स्फुट करती मंद हँसी,
झुक झूम-झूम गाती बेसुध भ्रमों के मीठे गुंजन में।
मधुमय बसन्त के आँगन में॥

हैं देख इसे ही आमों की ये डाल झूमती बौराई,
ढुलकाती हैं जिन पर बैठीं कोकिल रस-कण कल-कूजन में।
मधुमय बसन्त के आँगन में॥

अधखुले श्वेत पुष्पों के पन्नों पर अंति कर भ्रमरक्षर,
लिख रहा कौन यह पत्र छिपाकर लतिकाओं के अंचल में?
मधुमय बसन्त के आँगन में॥

क्या उसकी ही झर-झर भर-भर झरनों के जीवन में होती?
सर्-सर् मर्-मर् स्वर उसके ही क्या कोमल मलय समीरण में?
मधुमय बसन्त के आँगन में॥

बिसराया दिनकर ने किस पर अपनी किरणों का स्वर्ण जाल?
किसकी स्वर्णिम आभा झिलमिल-झिलमिल करती है क्षण-क्षण में?
मधुमय बसन्त के आँगन में॥

किसकी मादकता में चंचल कल-कल करता सरिता का जल?
लघु लोल लहरियाँ लहर-लहर लहराती किसके नर्तन में?
मधुमय बसन्त के आँगन में॥

यह नया भोर, सब हैं विभो, परिवर्तन जग के जीवन में,
कण-कण तृण-तृण खिंच रहा आज अनुपम उन्मद आकर्षण में।
मधुमय बसन्त के आँगन में॥