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बारहवीं ज्योति - वृक्ष (शुष्क वृक्ष) / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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किस लिए वृक्ष! बतला दो
तुम मौन बने रहते हो?
क्यों अचल बने जीवन-भर
बस यहीं खड़े रहते हो?॥1॥

क्यों सखे, तुम्हारे तन ने
वस्तुएँ सकल तज दी हैं?
जो रक्त डालियाँ थीं कल
वे आज विरक्त बनी हैं?॥2॥

क्या वानप्रस्थ आश्रम की
समा का अन्त हुआ है?
जिससे जीवन ने अन्तिम
आश्रम सन्यास लिया है॥3॥

सन्यास ग्रहण कर ही क्या
तप कठिन कर रहे हो तुम?
स्थिर होकर खड़े-खड़े ही
सब कष्ट सह रहे हो तुम?॥4॥

लेकर प्रचण्ड रवि-किरणें
तपता है ग्रीष्म भयंकर।
वर्षा में छा जाती है
घन-घोर घटा प्रलयंकर॥5॥

फिर शीत-काल आता है
बरसाता हिम के गोले।
सारा शरीर जगती का
थर-थर-थर कँपता डोले॥6॥

पर तुम वैसे के वैसे
ही अचल बने रहते हो।
कैसे भी कष्ट पड़ें क्या
तुम तनिक कभी हिलते हो॥7॥

इस मानव-जग के प्राणी
जो चेतन कहलाते हैं
सन्यास ग्रहण कर हिमगिरि
को तप करने जाते हैं॥8॥

हिमगिरि की शीत गुफाओं
में बैठे तप करते हैं।
तप की भीषण गर्मी को
हिम से शीतल करते हैं॥9॥

पर तुम? जिसकी चेतनता
में मानव जप करता है।
सन्देह और जड़ कह कर
जिसको ठुकरा देता है॥10॥

क्या कभी भूलकर भी हिम
गिरि का आश्रय लेते हो?
क्या खड़े-खड़े न यहीं तप
दिन-रात किया करते हो?॥11॥

तप करते-करते ही क्या
तन सूख गया न तुम्हारा?
यह अस्थि-मात्र का पंजर
ही केवल शेष तुम्हारा॥12॥

या नहीं सखे! यह तुमने
सन्यास नहीं अपनाया।
जग को नित शीतल छाया
देने में गात जलाया॥13॥

या भाग्य तुम्हारे ने ही
उलटा पलटा यह खाया।
जिससे सुख के दिन पीछे
दुख का यह दिन दिखलाया॥14॥

हो गया नष्ट ही सारा
वह हरीतिमा का वैभव।
जिसमें नित आकर पंछी
करते रहते थे कलरव॥15॥

अब दुर्दिन पड़ने पर वे
पंछी न यहाँ आते हैं।
जो भ्रम-वश आ जाते हैं।
वे देख लौट जाते हैं॥16॥

पंछी ही नहीं मनुज भी-
जो देख तुम्हारी छाया
आते थे करने शीतल
अपनी प्रतप्त मृदु काया॥17॥

क्षण-भर के लिए तनिक भी
वे आज नहीं रुकते हैं।
बस देख दूर ही से अब
मुँह मोड़ लिया करते हैं॥18॥

क्या इसी दुःख के कारण
प्रिय! शुष्क शरीर हुआ है?
चिन्ता ने जला-जलाकर
उर को खोखला किया है?॥19॥

प्रिय सखे! व्यथित मत होना
ऐसा होता आया है।
किसके न भाग्य ने अब तक
ऐसा पलटा खाया है॥20॥

जग में ऐसा परिवर्तन
क्षण-क्षण होता रहता है।
स्थिर एक रूप में कोई
क्या कभी यहाँ रहता है?॥21॥