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बारिश के दिनों में नदी का स्मृति-गीत / प्रभात मिलिन्द

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1.

स्वप्न में बहती है चौड़े पाट की एक नदी
बेआवाज़ याद का कंकड़ चुभता है
नदी के जिगर में बेइख़्तियार …

दो बेतरतीब किनारों के बीच
थरथराती है साँस की एक झीनी-सी सतह ।

लाल-नीली धारियों वाला
एक पीला-सुनहरा मेखला नीमनींद में कौंधता है..
और, दृश्य में एक रामनामी की तरह
झिलमिलाता है कोई रेशम बार-बार

आगत में सीली हुई लकड़ियों के
चटखने की टीस सुनाई पड़ती है
आग की लपटें जहाँ पर ख़त्म होती हैं
वहाँ से धुएँ की महीन-स्याह लकीरें उठती हैं
थोड़ी दूर तलक सीधी जाती हैं,
फिर बिखर जाती हैं … कहीं नहीं जाने के लिए ।.

एक चिरायन्ध गन्ध मस्तिष्क के
अन्तरतम-सूक्ष्म रन्ध्रों से टकराती है ..

अभी-अभी तो बरसात बाद की उगी
हरी दूब पर थोड़ी दूर चला था …
अभी तो आधी पढ़ी थी
एक प्रिय कवि की किताब

पसन्द की कमीज़ें क्या इसलिए ख़रीदी थीं
कि उनको पहन नहीं सकूँ एक भी बार !

सुख बेच कर दुख ख़रीदने का
व्यापार कभी किया है आपने ..?
फिर, क्लान्त पानी की ख़लिश का
अनुवाद आप कैसे कर सकेंगे !

2.

आपको पता है,
माघ में आइजोंग चावल के पके भात के साथ
चपिला माछ का झोर कैसा जायकेदार लगता है !
और चीनी मिट्टी की कटोरी में
लाउपानी की घूँट का वह दुर्लभ उन्माद ..!!

दुनिया की सबसे अक्षुण्ण गन्ध
दुनिया का सबसे अद्भुत स्वाद
दुनिया का सबसे जीवन्त दृश्य
दुनिया का सबसे कोमल स्वप्न
एक रोज़ देखते ही देखते
हमारी स्मृतियों के क़ैदी बन जाते हैं !

वे क्षण इसी जनम का हिस्सा होते हैं
मगर हम चाहें भी तो
उनतक लौट नहीं सकते दोबारा !

कौन सा काला जादू है जो हर बार
मेरा पता बताने से मुझको रोक देता है …

वैसे भी एक बार जो कोई गया उस देस, वह
हमेशा के लिए पिंजरे का सुग्गा बन जाता है ..

बचपन की किसी किताब में ऐसा पढ़ा था मैंने ।

तुमने तो कामरूप देस !
निर्वासित करने से पहले, मेरीआँखों के
बादल तक छीन लिए मुझसे !!

कविताओं के मुहावरे हमेशा जीवन के
सन्ताप और फ़रेब का विकल्प नहीं होते …

दुख पीले पन्नों पर दर्ज़ आधे-अधूरे हर्फ़ हैं
उनको उँगलियों के पोरों से भी पढ़ा जा सकता है

3.

बासुगाँव की वह दुबली सी लड़की
घर में बुने शॉल-मफ़लर का गट्ठर उठाए
क्या अब भी आती होगी हाट वाले दिन ?

अब तो उसका बच्चा बेक़ाबू दौड़ता होगा !

छोटी सी छतरी के नीचे
गोद भर रखा कपास का वह फाहा !

हाट में बिकती तमाम चीज़ों के बीच,
उसकी निष्कलुष हँसी
कैसा धवल दृश्य रचती थी !!

दुनिया अनुपमा दैमारी की
पुरानी कमानियों वाली फूलदार छतरी की
तरह महफूज़ और भरोसेमन्द होती
तो कितना सुन्दर होता !

लौट आने का अर्थ
ख़ुद को साथ लाना कब होता है ?
हम हथेली में रखी मामूली रकम भर बचते हैं,
ब्याज काटने के बाद जो लौटाता है प्रेम …

टीन वाली छत पर स्वप्न में अनवरत
बजता है बारिश का एक जादुई संगीत
रेत की नदी में फँस जाती है मेरी नीन्द की डोंगी …

गंगा के तट पर यह जो देह बैठी है किसकी है
जिसके ज़ेहन में बहती रहती है कोई दूसरी नदी ?

मिलूँगा अब तुमको एकबारगी
बंगाल की खाड़ी में ब्रह्मपुत्र !

प्रतीक्षा मेरे शब्दकोश में
उम्मीद से भरा अकेला शब्द है !!