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बारिश / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
घर से निकलते ही होने लगती है वर्षा
थोड़ा बढ़ते ही मिटते जाते
कीचड़ में पिछले पदचिह्न
ढाँढ़स के लिए पीछे मुड़कर देखते ही
ओझल हो चुका होता है बचपन का घर।
घन-गर्जन में डूब जाती
माँ-बाबा को पुकारती आवाज़
पुकारने को मुँह खोलते ही
भर जाता है वर्षाजल
मिट रही आयु रेखाएँ त्वचा से
कंठ से बहकर दूर चला गया है मानव स्वर
पैरों से उतरकर कास की जड़ों में चली गई है गति।
अपरिचित गीली ज़मीन पर
वृक्ष सा खड़ा रह जाता आदमी
पत्रों पर होती रहती है बारिश।