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बारिष में / नरेन्द्र दीपक
Kavita Kosh से
जी करता है आओ हम तुम दोनों टहलें बारिष में
जो कुछ मेरे और तुम्हारे मन में कहले बारिष में
चुहलबाजियाँ करते हैं सारस के जोड़े सरितट पर
आओ प्रिय हम भी मारें नहले पर दहले बारिष में
बड़े जतन से अंगों को गीले वसनों में ढाँक-ढाँक
मौसम को और निखार रहे ये बदन रूपहले बारिष में
तन से तो गीला था ही मन से भी भीग गया पूरा
देखा जब तुम को मैंने प्रिय पहिले-पहिले बारिष में
बौछारों वाले मौसम में चिन्ता क्या बौछारों की
दुनिया के दोषारोपण सब मिलजुल कर सहलें बारिष में
ज्यादा नहीं ठहरने की प्रिय ऐसी सुन्दर घटा घटा
साँसों की खुषबू से गढ़ले हम महल दुमहले बारिष में।