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बारीक ध्वनियों का बेचैननामा है कविता / विपिन चौधरी

एक लम्बी बेचैनी से गुज़रते हुए
कई ध्वनियाँ चुपके से साथ हो लेती हैं
बाहर जो कुछ भी अड्गम-सड्गम सुनाई देता है
उसे एक कोने में धकेलते हुए
सुबह मेरी और आईने के बीच की मूक बातचीत
बग़ीचे को पानी की फुहारों का दर्शन करवाते हुए
पानी और पेड़-पत्तों के आस-पास बिखरी हुई
जो रंग-बिरंगी ध्वनियाँ थिरक रही होती हैं और
भूखी-प्यासी
चिड़ियों को दाना-पानी
देते वक़्त
शुक्रिया की जो महीन आवाज़े वे भी और
न जाने कितनी ही
ध्वनियाँ कविता में रूपांतरित हो
उकड़ूँ बैठ जाती हैं
एक सुन्दर कविता
इन्हीं ध्वनियों का बैचैननामा ही तो है