भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बारूद बिछी धरती / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बारूद बिछी धरती
ज्वाला भरा गगन
खूँखार दरिंदों से भरे-
शान्ति के सदन
इतने बड़े संसार में हम खोज कर थके
हैवान ही हैवान हैं, इंसान नहीं है
बेकार प्रार्थना हुई
पूजा हुई विफल
विगलित न हो सकी-
किसी भगवान की नकल
लगता है कहीं कोई भी भगवान नहीं है
हैवान ही हैवान हैं, इंसान नहीं हैं
दस-बीस ये इंसान भी
मिले तो क्या मिले
झकझोरा इन्हें खूब,
पर टूक भी नहीं हिले
कैसे वतन की आबरू बचेगी हे विभो !
इन ज्ञानवान जिंदों में भी जान नहीं है
सब राजनिति की चुड़ैल
से डरे-डरे
जिंदा है फिर भी लग-
रहा जैसे मरे-मरे
कलमें है शांत जैसे स्याही सूख गयी हो
नेता न हुआ जैसे कोई कालजयी हो
किस्मत वतन की जो सँवारना है जानता
मंचों पै देखो तो नहीं उसका अता-पता
बस, जम के टेबुलों पै भाल ठोंक रहे हैं
जो सच्चे रहनुमा हैं, भाड़ झोंक रहे हैं
दुःशासनों से चीर तार-तार हो रहे
ये लाल शारदा के ज़ार-ज़ार रो रहे
है व्यर्थ यह अजान, शंख-नाद, प्रार्थना
अंधे, वधिर खुदा को आँख-कान नहीं हैं
(हैवान ही हैवान हैं, इंसान नहीं हैं)