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बारूद में जो ढल गए हैं / मनोज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
बारूद में जो ढल गए हैं
बिखरे हैं जो कचरे सरे बाज़ार में
लाइन लगी है उनके लिए सौ कतार में
वे सो रहे हैं बेखटक और बेहिसाब
पर, आज भी आगे हैं वो जीस्त की रफ़्तार में
हम ढल रहे हैं आज तलक इस खुमार में
आएगा कोई फर्क नए नेतावातार में
बारूद में जो ढल गए हैं जिस्म के कतरे
क्या वे रुला सकेंगे हमें आज के अखबार में
जीनत का ताज़महल या मज़नू की कब्रगाह
क्या तुम बना सकोगे मेरी यादगार में
ना तोप, ना बंदूक, ना ही एक मिसाइल
जब शब्द चीरते हों हमें आर-पार में
ना प्यार, ना विश्वास, ना ही महकते रिश्ते
बस! रह गए हैं अस्थि-पंजर आज के परिवार में