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बार-बार अथ से / अज्ञेय
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आँखें देखेंगी तो आकृति अन्धकार में सोयी
कान सुनेंगे लय नि:स्वप्न में खोयी।
याद करेगा मन तो स्तम्भित चिन्तन का पल
आत्मा पकड़ेगी तो निराकार का आँचल।
बार-बार अथ से ही यह पूरा होगा जीवन
सब कुछ दे कर ही तो कह पाऊँगा : ओ धन!
ओ धन, ओ मेरे धन!
डार्टिंगटन हॉल, टॉटनेस, 18 अगस्त, 1955