भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बार-बार अथ से / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखें देखेंगी तो आकृति अन्धकार में सोयी
कान सुनेंगे लय नि:स्वप्न में खोयी।

याद करेगा मन तो स्तम्भित चिन्तन का पल
आत्मा पकड़ेगी तो निराकार का आँचल।

बार-बार अथ से ही यह पूरा होगा जीवन
सब कुछ दे कर ही तो कह पाऊँगा : ओ धन!
ओ धन, ओ मेरे धन!

डार्टिंगटन हॉल, टॉटनेस, 18 अगस्त, 1955