भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बार-बार हारा है / नागार्जुन
Kavita Kosh से
गोआ तट का मैं मछुआरा
सागर की सद्दाम तरंगे
मुझ से कानाफूसी करतीं
नारिकेल के कुंज वनों का
मैं भोला-भाला अधिवासी
केरल का वह कृषक पुत्र हूँ
‘ओणम’ अपना निजी पर्व है
नौका-चालन का प्रतियोगी
मैं धरती का प्यारा शिशु हूँ
श्रम ही जिसकी अपनी पूँजी
छल से जिसको सहज घृणा है
मैं तो वो कच्छी किसान हूँ
लवण-उदधि का खारा पानी
मुझसे बार-बार हारा है...
सौ-हजार नवजात केकड़े
फैले हैं गुनगुन धूप में
देखो तो इनकी ये फुर्ती
वरुण देव को कितनी प्रिय है !
मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ !
मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ
मेरी इस भावुकता मिश्रित
बुद्धू पन पर तुम मुसकाओ
पागल कह दो, कुछ भी कह दो
पर मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ !
(23 जनवरी 1985)