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बार एक कतरा आँसू का / ख़ुर्शीद अकरम
Kavita Kosh से
एक सच्ची कहानी
जब धकेल दी जाती है
किसी फ़िल्मी क्लाइमेक्स की तरफ़
अपना मुँह छुपा लेता है सूरज
फीके चाँद की ओट में
एक दूसरे के गिर्द घूमते कबूतर
मग़्मूम हो कर बैठ जाते हैं
परों में मुँह दे कर
और धरती तय्यारी करती है
बार उठाने की
एक क़तरा आँसू का