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बार बार हरेक साल / मिथिलेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
भाइयो और बहनो यह आवारा भाषण
इस साल फिर लाल किले के प्राचीर से पढ़ा गया
हमने चुपचाप इसे सुन लिया हर साल की तरह
कुछ गरीबों की बातें कुछ गरीबी की बातें
कुछ मजबूरियों की बातें कुछ धमकियों की बातें
कुछ करने की बातें कुछ न हो पाने की बातें
पर्यायवाची शब्दों के सरल वाक्य विन्यास में
आपकी हमारी समझ में आ सकनेवाली भाषा में
हमारी आत्मा इस साल भी गदगद हुई
भाषण की आवारगी से
मैं कहता हूँ भाषण के शब्दों पर मत जाएँ
हश्र यही भाषण का जैसे फूलों का
जैसे तिरंगे का होते ही शाम बुलंदियों से उतर लिया जाना