भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाला-2 / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ आप परी कुछ वह परी कान का बाला।
हो नामे खु़दा क्यों न तेरा हुस्न दो बाला॥
है वह तो मेरी जान कि आगे को तेरे बन कर।
चलता है जिलों में तेरे परियों काा रिसाला॥
बाली तो पड़ी कान में छेदे कि कलेजा।
बाले की तिलावट ने तो बस मार ही डाला॥
सूरज को शफ़क़ शाम के पर्दे में छिपा ले।
तू ओढ़ के निकले जो कभी सुर्ख़ दुशाला॥
आँखों में चमकता है सितारा सा सहर को।
सीने की सफा पर तेरे जुगनूं का उजाला॥
पत्ती की जमावट की तरह और है काफ़िर।
चोटी की गुदावट का कुछ आलम है निराला॥
मांगा जो मैं बोसा तो मटक कर कहा है वाह।
क्या तू ही नया है मेरा एक चाहने वाला॥
अँगिया की खिचावट ने दिल खींच के बांधा।
पर जाली की कुर्ती ने बड़े जाल में डाला॥
पहुंचा जो मेरा हाथ शिकम पर तो यह समझा।
मख़मल है मलाई है या रेशम का है गाला॥
इस बात को पूछा तो लगी कहने झमक कर।
चल दूर मेरी जूती यह सहती है कसाला॥
तू इश्क में बूढ़ा भी हो तो भी ”नज़ीर“ आह।
अब तक तेरी बातों में टपकता है छिनाला॥

शब्दार्थ
<references/>