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बालू की बेला / जयशंकर प्रसाद
Kavita Kosh से
आँख बचाकर न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला।
कहाँ मिलोगे? किसी विजन में? - न हो भीड़ का जब रेला॥
दूर! कहाँ तक दूर? थका भरपूर चूर सब अंग हुआ।
दुर्गम पथ मे विरथ दौड़कर खेल न था मैने खेला।
कुछ कहते हो \'कुछ दुःख नही\', हाँ ठीक, हँसी से पूछो तुम।
प्रश्न करो ढेड़ी चितवन से, किस किसको किसने झेला?
आने दो मीठी मीड़ो से नूपुर की झनकार, रहो।
गलबाहीं दे हाथ बढ़ाओ, कह दो प्याला भर दे, ला!
निठुर इन्हीं चरणों में मैं रत्नाकर हृदय उलीच रहा।
पुलकिल, प्लावित रहो, बनो मत सूखी बालू का वेला॥