भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बालू रेत / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
बालू रेत की तासीर
कुछ अलग होती है
भुरभुरी मिटट्ी से
बालू रेत चिपकती नहीं तन पर
पर बैठ जाती है
छुपकर मन के किसी कोने में
खींच लाती है वापस
रोटी की खोज में गये
दिसावरियों को
हर साल किसी बहाने से
जात-जड़ूले, मेले-ठेले, गोठ-घूघरी
कसकती रहती है
कहीं मन में
उम्र भर।