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बालू से चिनी जाएगी दीवार कहाँ तक / कांतिमोहन 'सोज़'
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बालू से चिनी जाएगी दीवार कहाँ तक ।
वीराने में खोजोगे समंज़ार<ref>चमेली का कुँज</ref> कहाँ तक ।।
मिलते हैं नए ज़ख़्म मुदावा<ref>इलाज</ref> नहीं मिलता
दिल हो भी मसीहा का परस्तार<ref>आस्था रखनेवाला</ref> कहाँ तक ।
एक जिंस है एहसास भी दिल भी मनो-तू<ref>मैं और तू</ref> भी
वल्लाह बढ़ा आए है बाज़ार कहाँ तक ।
ऐ जोशे-जुनूं तेरा भी कुछ क़र्ज़ है हम पर
चुप रह के बनें तेरे गुनहगार कहाँ तक ।
अच्छी नहीं लगती है मुझे तल्ख़बयानी
क़ाबू में रहेगी मेरी गुफ़्तार कहाँ तक ।
दिन में ही अगर लूट मची हो तो रफ़ीक़ो<ref>साथियो</ref>
हम रात में रह सकते हैं बेदार कहाँ तक ।
चढ़ बैठा है छाती पे उजाले की अन्धेरा
अब सोज़ भी रहते हैं तरफ़दार<ref>पक्षधर</ref> कहाँ तक ।।
शब्दार्थ
<references/>