बाल कविताएँ / भाग 12 / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
जंगल का गीत
ठुमक-ठुमककर भालू नाचे
बन्दर बैठा पोथी बाँचे ।
गिल्ली –डण्डा खेले बिल्ली ,
चूहे उड़ा रहे हैं खिल्ली ।
गाने बैठा जब खरगोश,
गधेराम को चढ़ गया जोश ।
जा मंच पर माइक सँभाला ,
राग सुनाया गड़बड़झाला ।
गाना सुनकर कुछ थे भागे ,
हाथी जी थे सबसे आगे ।
कुछ गहरी निंदिया में सोए
माथा पकड़-पकड़ कुछ रोए ।
बन्दर अफ़लातून
पा गए
नया कोट कहीं से
टोपी और पतलून।
बाँध गले टाई बन्दर
बन गए अफ़लातून ।
बोले-
भले जितनी ठण्ड हो
किटकिट नहीं करूँगा ।
बैठ पेड़ की किसी डाल पर
अब मैं मौज़ करूँगा ।
मैं झपट
किसी ठेले से
खूब चबाऊँ मूँगफली ।
गर्म पकौड़ी
और गजक
लगती मुझको बहुत भली ।
नटखट बन्दर
ऊँची पढ़कर गया पढ़ाई
नटखट बन्दर ।
लिये बगल में भारी फ़ाइल
पहुँचा दफ़्तर ।
जब धोखे से
कालबेल थी तेज़ बजाई ।
नटखट चौंका-
अरे कहाँ से आफ़त आई ।
डर के मारे उछल गया वह
भागा बाहर ।
देख सामने चपरासी को ,
बोल तनकर –
हुकुम हमारा
बैठो जाकर तुम कुर्सी पर ।
मुड़कर बोला बाबू से-
‘सब फ़ाइल लाओ ।
सारे पन्ने
चपरासी से चैक कराओ ।
इसी तरह से काम करोगे
इस दफ़्तर में ।
मैं चलता हूँ
आऊँगा फिर हफ़्ते भर में।’