Last modified on 15 जनवरी 2015, at 10:14

बाल काण्ड / भाग 1 / रामचंद्रिका / केशवदास

गणेशवंदना

मनहरण छंद

बालक मृणालनि ज्यों तोरि डारै सब काल,
कठिन कराल त्यों अकाल दीह (दीर्घ) दुख को।
विपति हरत इठि पद्मिनी के पात सम,
पंक ज्यों पताल पेलि पठवै कलुख को।
दूरि कै कलंक अंक भवशीश शशि सम,
राखत हैं केशौदास के वपुख को।
साँकरे (संकट, संकीर्ण, सँकरा, समय) की साँकरन (शृंखलाओं को) सममुख होत तोरै,
दशमुख (दशों दिशाएँ, अथवा ब्रह्मा-मुख, विष्णु-1 मुख, महेश-5 मुख।) मुख जोव गजमुख मुख को।।1।।

सरस्वती वंदना

बानी जगरानी की उदारता बखानी जाय,
ऐसी मति कहौ घौं उदार कौन की भयी।
देवता, प्रसिद्ध, सिद्ध ऋषिराज तपबृद्ध,
कहि कहि हरि सब, कहि न केहूँ लयी।
भावी, भूत, वर्तमान जगत बखानत है,
कशोदास केहूँ न बखानी काहू पै गयी।
वर्णे पति चारि मुख, पूत वर्णे पाँच मुख,
नाती वर्णे षट मुख, तदपि नयी नयी।।2।।

राम वंदना

पूरण पुराण अरु पुरुष पुराण परि-
पूरण बतावैं न बतावैं और उक्ति की।
दरसन देत, जिन्हें दरसन समुझैं न,
‘नेति नेति’ कहै वेद छाँड़ि आन युक्ति को।
जानि यह केशोदास अनुदिन राम राम
रटत रहत न डरत पुनरुक्ति को।
रूप देहि अणिमाहि, गुण देहि गरिमाहि,
भक्ति देहि महिमाहि, नाम देहि मुक्ति को।।3।।

कवि परिचय

सुगीत छंद

सनाढ्य जाति गुनाढ्य हैं, जग सिद्ध सुद्ध स्वभाव
कृष्णदत्त प्रसिद्ध हैं, महि मिश्र पंडितराव।
गणेश सो सुत पाउयो बुध काशिनाथ अगाध।
अशेष शास्त्र विचारि कै जिन जानियो मत साध।।4।।

(दोहा) उपज्यो तेहि कुल मंदमति, सठ कवि केशवदास।
रामचंद्र की चंद्रिका, भाषा करी प्रकास।।5।।
सोरह सै अट्ठावनै, कार्तिक सुदि बुधवार।
रामचंद्र की चंद्रिका, तब लीन्हो अवतार।।6।।

राम-महिमा
षट्पद

बोलि न बोल्यो बोल, दयो फिर ताहि न दीन्हो।
मारि न मार्यो शत्रु, क्रोध मन बृथा न कीन्हो।
जुरि न मुरे संग्राम, लोक की लीक न लोपी।
दान, सत्य, संमान सुयश दिशि बिदिशा ओपी।
मन लोभ-मोह-मद-काम-वश भये न केशवदास मणि।
सोइ परब्रह्म श्रीराम हैं अवतारी अवतार मणि।।7।।

चतुष्पदी छंद

जिनको यश-हंसा जगत प्रशंसा मुनिजन मानस रंता।
लोचन अनुरूपनि श्याम-स्वरूपनि अंजत अंजित संता।
कालत्रयदर्शी निर्गुणपर्शी होत विलंब न लागै।
तिनके गुण कहिहौं, सब सुख लहिहौं पाप पुरातन भागै।।8।।

(दोहा) जागति जाकी ज्योति जग एक रूप स्वच्छंद।
रामचंद्र की चंद्रिका बरणत हौं बहु छंद।।9।।

रोला छंद

शुभ सूरज कुल-कलश नृपति दशरथ भये भूपति।
तिनके सुत भये चारि चतुर चितचारु चारुमति।
रामचंद्र भुवचंद्र भरत भारत-भुव-भूषण।
लक्ष्मण अरु शत्रुघ्न दीह दानव दल-दूषण।।10।।

छत्ता छंद

सरयू सरिता तट नगर बसै अवधनाम यश-धाम घर।
अघओघ-विनाशी सब पुरवासी अमरलोक मानहुँ नगर।।11।।

विश्वामित्र आगमन

षट्पद

गाधिराज को पुत्र, साधि सब मित्र शत्रु बल।
दान कृपान विधान वश्य कीन्हों भुवमंडल।
कै मन अपने हाथ, जीति जग इंद्रियगन अति।
तप बल याही देह भये क्षत्रिय ते ऋषिपति।
तेहि पुर प्रसिद्ध केशव सुमति काल अतीतागतनि गुनि।
तहँ अद्भुत गति पगु धारियो विश्वामित्र पवित्र मुनि।।12।।

सरयू-वर्णन

प्रज्झटिका छंद

पुनि आये सरयू सरित तीर।
तहँ देखे उज्ज्वल अ मल नीर।
नव निरखि निरखि द्युति गति गंभीर।
कछु वर्णन लागे सुमति धीर।।13।।
अति निपट कुटिल गति यदपि आप।
तउ देत शुद्ध गति छुवत आप।।
कछु आपुन अध अध गति चलंति।
फल पतितन कहँ ऊरध फलंति।।14।।
मदमत यदपि मातंग संग।
अति तदपि पतित पावन तरंग।
बहु न्हाइ न्हाइ जेहि जल सनेह।
सब जात स्वर्ग सूकर (सूअर; सुकर्म करने वाले।) सुदेह।।15।।

गजशाला वर्णन

जहँ जहँ लसत महामदमत्त। वर बारन बार न दल दत्त (दलने में)।
अंग अंग चरचे अति चंदन। मुंडन भरके देखिय बंदन (रोली)।।16।।

(दोहा) दीह दीह दिग्गजन के, केशव मनहुँ कुमार।
दीन्हें राजा दशरथहिं, दिग्गपालन उपहार।।17।।

बाग वर्णन
अरिल्ल छंद

देखि बाग अनुराग उपज्जिय।
बोलत कलध्वनि कोकिल सज्जिय।
राजति रति की सखी सवेषनि।
मनहुँ बहति मनमथ संदेशनि।।18।।
फूलि फूलि तरु फूल बढ़ावत।
मोदत (महकते हुए) महा मोद उपजावत।
उड़त पराग न, चित्त उड़ावत।
भ्रमर भ्रमर नहिं, जीव भ्रमावत।।19।।

पादाकुलक छंद

शुभ सर शोभै। मुनिमन लोभै।
सरसिज फूले। अलि रस भूले
जलचर डोलैं। बहु खग बोलैं।
बरणि न जाहीं। उर अरुझाहीं।।20।।

हाकलिका छंद

संग लिये ऋषि शिष्यन घने। पावक से तपतेजनि सने।
देखत सरिता उपवन भले। देखन अवध पुरी कहँ चले।।21।।

अवधपुरी-वर्णन

मधुभार छंद

ऊँचे अवास! बहु ध्वज प्रकास।
सोभा बिलास। सोभै आकास।।22।।

आमीर छंद

अति सुंदर अति साधु। थिर न रहत पल आधु।
परम तपोमय मानि। दंड धारिनी जानि।।23।।

हरिगीत छंद

शुभ द्रोणगिरिगण शिखर ऊपर दित औषधि सी गनौ।
बहु वायु वश वारिद बहोरहि अरुझि दामिनी द्युति मनौ।।
अति किधौं रुचिर प्रताप पावक प्रकट सुरपुर को चली।
यह किधौ सरित सुदेश मेरी करी दिवि खेलति भली।।24।।