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बाल बीनतीं औरतें / शुभम श्रीवास्तव ओम
Kavita Kosh से
कटे खेत में देर शाम तक
बाल बीनती हुईं औरतें !
लिए हाथ में झौवा-खाँची
फटी किनारी, गुड़ की भेली,
खड़ीं मेड़ पर पूछ रही हैं
“कहा महाजन ! आई, ले ली,”
बहुत देर तक जोह रही हैं,
मन भीतर तक टोह रही हैं,
लम्बा सूखा झेल रही हैं,
ये पानी की कुईं औरतें ।
नहीं नाम, पहचान अलग से
जो कुछ भी है केवल जाँगर,
कहीं दूर छोटी सी बस्ती
कुछ बौने अधनंगे से घर,
चूल्हा - बटलोई - कलछुल से,
जाते हुए अँधेरे पुल से,
सुबह मिला करती हैं कुचली,
ये महुए सी चुईं औरतें ।
रोज़ गिना जाते हैं फिर से
आते-जाते साहबज़ादे,
अभी पीढ़ियों का कर्ज़ा है
अभी बचे हैं कई तगादे,
अपने समकालीन समय से,
कटीं-कटीं सी जीवनलय से,
गायब हैं नारी विमर्श से,
ये बेचारी मुईं औरतें ।