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बावजूद मधुशाला के, कवि बच्चन जी / वीरेन डंगवाल
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चांद की चकल्लस से
कुछ सुंदर हुई रात
थोड़ी-सी हवा चली
और मजा आ गया
बालकनी से दीखा
सुदूर भूरे रंग का अंधकार
जिसे भेदते दाखिल होती थी
महानगर में
अंतहीन-सी लगती कतार मोटर गाडियों की
वैसे ही इस तरफ से भी जाती थी
याद आए कुछ चेहरे
भूलें भी कुछ कसकीं
जी में आया यह भी
कवि बच्चन में कुछ तो है
बावजूद मधुशाला के !
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