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बासी-ताजा, सूंचा-नकली सोची कुछ नै लीहोॅ / अमरेन्द्र

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बासी-ताजा, सूचा-नकली सोची कुछ नै लीहोॅ
सब जाली छौं, दू नम्बर रोॅ, दू नम्बर रोॅ लोगो
जेहनोॅ पूजा-पाठ करावै वाला, होने भोगो
बारी-झारी के चक्कर में बिकतौ तोरोॅ डीहोॅ
की टिक्कस, की सादा कागज-सब रोॅ मान बरोबर
जिस्ता भर कागज कीनी लेॅ मारोॅ मोहर हानी
ताजमहल में बैठी केॅ पिकनिक मेँ लेॅ बिरयानी
सोना रोॅ नै, गोबरे केरोॅ दाम मिलै छै दोबर
बड़ोॅ बुजुर्गों रोॅ बातोॅ केॅ छोड़ोॅ, सब मटियावोॅ
सबटा सगुन पुरानोॅ आबेॅ यहाँ बुझावै भाँगटोॅ
कल तक शाल-दो शाला वाला वहू खड़ा छै नाङगटोॅ
तोरह्हा की नीति सें लेना, पकड़ी केॅ झँटियावोॅ
जतरा नै सुधरै खैल्हौं सेँ आबेॅ दही या मछली
समझोॅ जतरा सुफल वहीं पर अगर दिखी जांव तेल-घी।