भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाहरी जगत मुझसे होकर भाषा में बह जाता है / दिलीप चित्रे
Kavita Kosh से
बाहरी जगत मुझसे होकर भाषा में बह जाता है
कभी-कभी बीच में उच्चारित शब्दों के अक्षर आते हैं
सपाट कागज़ पर काली लिपि ठहर जाती है
कविता से उसके बाद मेरे कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रहता
सपाट कागज़ पर लोगों की आँखें भटकती हैं
काली लिपि में आ जाता है फिर एक निराला वेग
अक्षरों के शब्द बनते हैं फिर उनका उच्चार होता है
वही सम्बन्ध भाषा से बह कर जाता है एक आन्तरिक जगत में
वह आन्तरिक जगत मेरा नहीं है उनका भी नहीं
अनेक आन्तरिक जगों से मिलकर बनता है वह जग
जिसके बाहर हममें से कोई भी नहीं जा सकता
और जिसमें हम अकेले भटकते रहते हैं उदास
एक अनाकलनीय पाशविक अंग में जकड़ा होता है जैसे
एक उतनी ही दुर्बोध आत्म का अदम्य प्रकाश