भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाहर-भीतर के मध्य खड़ा / सुरेश सलिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं दरअसल जंगलों के बारे में सोच रहा था
जिन्हें उजाड़कर यह वैश्विक वास्तु खड़ा किया गया है

अनुष्टुप न रच पाने की निश्शब्द वेदना
मेरे रक्त में बह रही थी
और तमसा के निर्जल सीमान्त
पपड़ाए होंठों पर उजाड़ का यशोगान गा रहे थे

उन जंगलों से —
उस नदी के गर्भ से
मैं बाहर नहीं आ पा रहा था

भीतर एक लपट थी
बाहर एक विश्व समाज था
बा-मज़ाक़ — बे-नियाज़

बाहर-भीतर के मध्य खड़ा मैं
दरअसल उन जंगलों के बारे में सोच रहा था
और मेरे पास एक विलुप्तप्राय भाषा थी।