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बाहर-भीतर के मध्य खड़ा / सुरेश सलिल
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मैं दरअसल जंगलों के बारे में सोच रहा था
जिन्हें उजाड़कर यह वैश्विक वास्तु खड़ा किया गया है
अनुष्टुप न रच पाने की निश्शब्द वेदना
मेरे रक्त में बह रही थी
और तमसा के निर्जल सीमान्त
पपड़ाए होंठों पर उजाड़ का यशोगान गा रहे थे
उन जंगलों से —
उस नदी के गर्भ से
मैं बाहर नहीं आ पा रहा था
भीतर एक लपट थी
बाहर एक विश्व समाज था
बा-मज़ाक़ — बे-नियाज़
बाहर-भीतर के मध्य खड़ा मैं
दरअसल उन जंगलों के बारे में सोच रहा था
और मेरे पास एक विलुप्तप्राय भाषा थी।