भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाहर की सारी मायूसी / माधव कौशिक
Kavita Kosh से
बाहर की सारी मायूसी लेकर हम घर जाते हैं।
दरवाज़े तक आते-आते सपने भी मर जाते हैं॥
पहले तो आईना हम से मिलकर कितना हंसता था,
अब तो अपना अक्स देखकर हम खुद ही डर जाते हैं।
मामूली सा काम प्यार था,वो भी हमसे न हुआ,
करने वाले नामुमकिन कामों को भी कर जाते हैं।
फूलों की अंधी साज़िश का शायद यही नतीज़ा है,
कलियों के कत्ल अमूमन कांटों के सर जाते हैं।
मेरे अपने सीने के क्यों घाव अभी तक नहीं भरे,
इक न इक दिन सबके दिल के ज़ख़्म अगर भर जाते हैं।
उनके जीवन में जीने का मतलब है न मरने का,
वो गुंचे जो बिना खिले ही शाख़ों से झर जाते हैं।