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बाहर थी तब राका छिटकी / अज्ञेय
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बाहर थी तब राका छिटकी!
यदि तेरा इंगित भर पाता, क्यों विभ्रम में बाहर आता?
प्रेयसि! तुम ही कुछ कह देतीं, तब जब थी मेरी मति भटकी!
पुरुष? तर्क का कठपुतला-भर, स्त्री- असीम का अन्त:निर्झर!
पर मैं तब भी रोया था यद्यपि, मेरी जिह्वा थी अटकी!
बाहर रूठ चला मैं आया- अब जाना, धोखा था खाया-
अब, जब एक असीम रिक्तता प्राणों के मन्दिर में खटकी!
बाहर थी तब राका छिटकी!
लाहौर, 20 दिसम्बर, 1934