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बिकना / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जो कभी नहीं बिके थे
वे इस बार के बाज़ार में बिक गए
सौदागर ने उनकी जो क़ीमत मुकर्रर की
वह उनकी औक़ात से ज़्दाया थी
इसलिए वे ख़ुशी- ख़ुशी बिक गए
इस ख़रीद- फरोख़्त में दलालों ने
ख़ूब माल और शोहरत कमाई
अपनी सात पुश्तों का इन्तज़ाम
कर लिया
इस ख़रीद में हर दिशा के लोग
शामिल थे
कुछ बज़िद्द लोग अपनी शर्तों में
उदार होकर बिक गए
इस बेशर्म समय में उनके पास
शर्मिन्दा होने का भाव नहीं
बचा था
जो नहीं बिके वे मूर्ख थे