भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना / मख़्मूर सईदी
Kavita Kosh से
बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना|
था इस राह में आख़िर हमें ख़ुद भी बिखर जाना|
हवा के दोश पर बादल के टुकड़े की तरह हम हैं,
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हम को किधर जाना|
[दोश=कंधे]
मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी,
जहाँ इस शहर में रौशनी देखो ठहर जाना|
पस-ए-ज़ुल्मत कोई सूरज हमारा मुन्तज़िर होगा,
इसी एक वहम को हम ने चिराग़-ए-रह्गुज़र जाना|
[पस-ए-ज़ुल्मत= अन्धेरे के आगे; मुन्तज़िर=इंतज़ार करता हुआ]
दयार-ए-ख़ामोशी से कोई रह-रह कर बुलाता है,
हमें "मख्मूर" एक दिन है इसी आवाज़ पर जाना|
[दयार-ए-ख़ामोशी=मौत का घर]