बिखरे छंद जिंदगी के / राजेश श्रीवास्तव
किसी अतुकांत कविता की तरह
बिखर गए हैं छंद-तुम्हारी मेरी जिंदगी के।
कई पंक्तियों में मिलकर भी हम प्रश्नचिह्न हो जाते हैं
हम दो बंजारे शब्द रुके भी तो विराम खो जाते हैं
कितनी विसंगतियों के हाशिए
छोड़ बैठे हम मासूम अध्याय में सादगी के।
कहीं भी किसी भी मोड़ पर जिंदगी में सम नहीं होते
समझौते ही टकराते हैं केवल हम नहीं होते
कभी स्वार्थ, कभी लालच, कभी डर
क्या-क्या न अर्थ निकाले हमने बंदगी के।
कभी लय नहीं मिलती, कभी ताल तो कभी तुक नहीं होती
अब मिलने में जाने क्यूं पहले-सी कुहुक नहीं होती
फिर भी अच्छे खासे अभिनेता हैं हम
रिश्तों-नातों की रस्मों की अदायगी के।
पंचमाक्षरों–सी अब कोमलता नहीं, मीठी-मधुर ताल नहीं
फिर भी मलाल ये है किसी को भी ज़रा-सा मलाल नहीं
चंद बासी कटुताएं अब तक क्यूं
पाले बैठे हो तुम ताजमहल में ताज़गी के।