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बिखरे सम्बन्ध / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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एक नया गीत दिया
फिर गुलाब-गन्ध ने,
बाँध लिया मुझको आँचल के छन्द ने।
आम्र-वनों ने जी भर कोकिल के बोल पिये,
ताजी मंजरियों ने गन्ध-कोष खोल दिये;
स्वप्निल आँखें खोली ऊँघते कछारों ने,
पोर-पोर कसा उन्हें चाँदनी-प्रसारों ने;
एक जीत दी मुझको-
तन के अनुबन्ध ने।
भूले गृहकाज भ्रमर बन्द जलज के तन में,
सुन्दरता से बढ़कर सत्य नहीं त्रिभुवन में,
चन्दन वासित बन्धन क्षण पर क्षण बीत रहे,
अन्तस के राग सभी गूँजहीन रीत रहे;
एक रीति दी मुझको-
रीतते मिलिन्द ने।
रूपहीन गन्ध-गीत बेले ने भी गाया,
मेरे ही अर्थों को मुझमें ही महकाया,
कई गूढ़ गीत रचे चन्दनी कसावों ने,
व्यापक व्याख्या कर दी फागुनी हवाओं ने,
एक प्रीति दी मुझको-
बिखरे सम्बन्ध ने।