भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिखरे हिमखण्ड / वीरेंद्र आस्तिक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तितर-बितर कर दिए गए हो
सोचो फिर जुड़ाव की।

दल-संस्कृति से मिला तुम्हें क्या
कबीलियाई ख़ून-ख़राबा
टूटा ध्वज, तिलक, टोपियों के-
बल पर कुछ बनने का दावा

खाली सिर हो गए बोझ से
सोचो फिर भराव की।

जाति आदमी, धर्म आदमी
क्या ये दर्शन नाकाफ़ी है
क्या नहीं दूसरी आज़ादी-
के लिए बात बुनियादी है

बिखर गए हिमखंडों! सोचो
मिलकर फिर बहाव की ।