भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिखरे हुए गहने, फटी साड़ी की चिन्दियाँ / श्याम कश्यप बेचैन
Kavita Kosh से
बिखरे हुए गहने, फटी साड़ी की चिन्दियाँ
टूटे हुए से गिद्ध के पर देख रहे हैं
संगीन के साए में है दहशत की ख़ामोशी
माहौल में कर्फ़्यू का असर देख रहे हैं
कैसी ये सियासत है कि मज़हब के नाम पर
लुटता हुआ ग़रीब का घर देख रहे हैं
बेजान ये मरते हुए रिश्ते गवाह हैं
हम आपके तोहफ़ों में ज़हर देख रहे हैं
क्या है न बताओ हमें ये दौरे तरक़्क़ी
खाई से पहाड़ों के शिखर देख रहे हैं
तूफ़ान कोई आपके अन्दर ज़रूर है
हम आपके माथे पे लहर देख रहे हैं
शायद वतन को कोई फ़रिश्ता उबार दे
अख़बार में हर रोज़ ख़बर देख रहे हैं