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बिखरे हुए तिनकों से घर सामने लाना है / हरिराज सिंह 'नूर'
Kavita Kosh से
बिखरे हुए तिनकों से घर सामने लाना है।
टूटे हुए ख़्वाबों को जिसमें कि सजाना है।
मैं एक किताब ऐसी जो चाहे मुझे पढ़ ले,
अब तुम से नहीं कुछ भी मुझको तो छुपाना है।
ख़ूं से जो लिखा जाए, दुहराए जिसे दुनिया,
नाकाम मुहब्बत का अफ़साना पुराना है।
मिटना तो हुआ लाज़िम हर एक लड़ाई में,
मिटने से मगर पहले दुश्मन को मिटाना है।
कुछ भी न हुआ हासिल औरों को तपाया जो,
कुन्दन सा जो बनना तो अपने को तपाना है।
कमज़ोर बने रहकर दिन अपने गुज़ारो तो,
आँखे न दिखानी हैं ख़ुद को ही सताना है।
तुम ‘नूर’ करो कोशिश हर हाल में हारोगे,
तुम को न मिलेगा वो उसका जो ठिकाना है।