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बिखर जाये न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक / मयंक अवस्थी

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बिखर जाये न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक
ये आँखें बुझ न जायें ख़्वाब की ताबीर होने तक

चलाये जा अभी तेशा कलम का कोहे –ज़ुल्मत पर
सियाही वक़्त भी लेती है जू-ए-शीर होने तक

इसी ख़ातिर मेरे अशआर अब तक डायरी में हैं
किसी आलम में जी लेंगे ये आलमगीर होने तक

तेरे आग़ाज़ से पहले यहाँ जुगनू चमकते थे
ये बस्ती मुफ़लिसों की थी तेरी जागीर होने तक

मुझे तंज़ो-मलामत की बड़ी दरकार है यूँ भी
अना को सान भी तो चाहिये शमशीर होने तक

ये क्यों लगता है अपनी ज़ात का हिस्सा नहीं हूँ मैं
मेरा अहसास भारतवर्ष था कश्मीर होने तक

मुहब्बत आखिरश ले आयी है इक बन्द कमरे में
तेरी तस्वीर अब देखूँगा खुद तस्वीर होने तक