भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिगड़ैल चेहरा / विष्णुचन्द्र शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काशीनाथ सिंह की कहानी के
एक बिगड़ैल चेहरे को
मैंने करीब से देखा।
मैंने देखा बच्चनसिंह के घर में
शराब की चुस्की ले रहा है
जमींदार का तना हुआ बिगड़ैल चेहरा!
मैंने देखा, माज़रा कुछ और है
तने हुए प्राध्यापक का।
मुझे कई सामंत, जमींदार और ठसकदार
हिंदी के मठाधीश याद आए इसी नगर के।
मैंने जब्त कर लिया अपना क्रोध।
हँसा और हँसता रहा मेरा चेहरा
बिगड़ैल चेहरों पर।
काशीनाथ सिंह अपने चेहरों की कुंडली बांचता
रहा...।
मुझे याद आया-पंडाल में बैठे हैं
कलाकार कुँवरजी अग्रवाल
यार कर रहे हैं युगेश्वर मुझे!
बिगड़ैल चेहरों की तस्वीरें मैंने काशीनाथ सिंह के
झोले में फंेक दी।
सुनता रहा नयी शैली में धुनों का आर्केस्ट्रा।
सहज उछाह से आने वालों की फोटो खींचता रहा
फोटोग्राफर।
सभ्यता के आवरण के भीतर
बिगड़ैल चेहरा अकेला पड़ गया था!
कैमरे की रोशनी जब-तब कौंध जाती थी
मैं सामंती दौर से हटकर
टटोलता रहा
अपनों का इंसानी मंजर...!