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बिच्छू के डंक-से ये दिन / संतलाल करुण

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बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे
सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं
बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े
नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही |

अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा
द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए
भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई
रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे
जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर
क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |

आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का
पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा
महामारी-सा रुतबा है आतंक का
डंका छलबल का चारों तरफ बज रहा
बाह्य विभुता का ऊपर से छाया नशा
दर्प-कंदर्प की हाँक चलती रही |

धृष्टता-भ्रष्टता का मुकुट सिर धरे
न्याय को पंख जैसे गरुण का लगा
शान्ति-करुणा की अर्थी उठाते हुए
भीम का कंधा ज्यों हो दुराचार का
धर्म का दर्भ मरुभूमि में जल रहा
होलिका सत्य की नित्य जलती रही |