बिछा हुआ है / हरीश भादानी
बिछा हुआ है
सीवण का आसन
सोने की चौकी
भले उसे तू
सन्नाटे का
शिलाखंड भर कह दे
था अनसुना
अदेखा करजा
बोला है बोले है
बजा बज-बजता जाए है
इकतारा.....
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सागर है
मेरे भीतर
उतर कर
देख रहा आकाश
उगटी है कि नहीं
चांद की टिकुली,
रात ने
पहनी है कि नहीं
तारोंवाली बंधेज,
उगेरी है कि नहीं
लहर ने
सांय-सांयती
राग बिलावल,
ठंडी नींद उतार
उठे अन्तस ही
भरे भैरवी का आलाप,
जाल पोटली
कांधे ऊपर लाद
खोल खूंटे से नाव
मछेरा
चप-छप चप्पू
चले दिसावर
नीला-नीला सा
यह सागर
जो मेरे भीतर है
उसी में नहा
चढ़े चढ़ता जाए
शिखरों पर सूरज,
धूप
देखती रहे उसे
आंखें चौड़ाए
सारे भीतर को खंगार
भर लिए मोती
सोन मछरियां
और उधर वह
रांध निवाले
छवां गई आंगन में
खुले गुलबिया हाथ
रचें कोलाहल
खाली हो-हो
पिटें पीटें आवाजें
तब वह
चुग-चुग चुने परोसे
थका सूरज
सरका जाए कंदील
उठे सिंदूरिन
जला रखे ड्योढ़ी पर
कल्मष तो कांपे ही
थर-थर सिहरा-सिहरा
दूर-दूर पर
और आंख में
झलमलती सी आस
लौटना देखे,
दिखाए भी वह
रोशनी की
झीनी
लरजाई सीध-
लौटो लौट आओ
घर यहीं है
लगते ही किनारे नाव
कुलांचें भर गया है
आखा घर
और तू है कि रोज
शोर के जंगल में
जा धंसे है
न देखे है किसी को तू
फिर तू भी तो
नहीं दिखता किसी को
तू भी तो
वहां की होड़ दौड़े है
फटा-चिथरा हुआ
लौटे है घर
जेब में ही नहीं
सोच में मुंह में
भरे हुए जंगल
जनवरी’ 82