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बिछुड़ना / रूपम मिश्र
Kavita Kosh से
हम साथ चल रहे हैं
फिर भी जाने क्यों लग रहा है
कि हम बिछुड़ रहे हैं !
प्रेम का ये हासिल पहले से ही लाज़िम था
बस, तकलीफ़ ये है
कि बिछुड़ने के बाद ज़िन्दा भी रहना होगा !
देह को एक मृत आत्मा का बोझ लादकर चलना होगा
उसके हाथ को अपने हाथ में
कसकर पकड़ लेती हूँ
पर उसका हाथ ढीला हो जाता है
मुझे हिंसा का अपराधबोध होता है
मैं छोड़ देना चाहती हूँ उसका हाथ
तभी लगता है कि कहीं दूर बियावान में
कोई बच्चा रो रहा है ।