बिछुड़ा मीत निहार रहा मैं / बालस्वरूप राही
मुझे शिकायत भरी नज़र से तुम मत देखो
तुममें अपना बिछुड़ा मीत निहार रहा मैं।
कुछ वैसे ही लोचन, लोचन का सूनापन
झुकी झुकी सी पलक, निग़ाहें उन्मन उन्मन
बिल्कुल वैसी ही बिखरी बिखरी सी अलकें
बिल्कुल वैसा ही अधरों का मादक कम्पन।
रूप तुम्हारा अंकित कर दृग की पुतली पर
किसी प्रवासी की तस्वीर उतार रहा मैं।
आज तुम्हें यद्यपि पहली ही बार निहारा
किन्तु लगा परिचित सा हर संकेत तुम्हारा
पूर्वं जन्म की साथिन सी मिल गईं आज तुम
डूबी डूबी नाव स्वयं पा गई आज तुम
डूबी डूबी नाव स्वयं पा गई किनारा।
स्वर में भर मनुहार दृगों में सजल वेदना
तुम्हें प्यार से सौ सौ बार पुकार रहा मैं।
ज्ञात मुझे यह बात प्राण, तुम हो बेगानी
अभी अभी वर लोगी कोई राह अजानी
किन्तु पास बैठो तुम पल-भर यह क्या कम है
सुन न सको चाहे तुम मेरी कसक-कहानी।
अगर रुक सको पल भर तो अहसान तुम्हारा
तुममें अपने दिल का दर्द बिसार रहा मैं।
यहां सभी हैं प्रीत जता कर छलने वाले
आंख मिलाकर खुद ही आंख बदलने वाले
मेरा अनुभव कहता, कब अपने होते हैं
चलते चलते चौराहों पर मिलने वाले
इसीलिए शंकित हूँ दांव लगा ममता का
तुम्हें जीत बैठा कि स्वयं को हार रहा मैं।
मुझे शिकायत भरी नज़र से तुम मत देखो
तुममें अपना बिछुड़ा मीत निहार रहा मैं।