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बिछोह का दूसरा पक्ष / देवेन्द्र भूपति / राधा जनार्दन

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बेरों को चुनने वाला नहीं
मरु में चींटियाँ चक्कर लगाती हैं ।

बिछड़ने की बात कहकर गई संध्या का नटखटपन
सुबह सूरज की लाली में शर्माता खिलता है ।

एक पुराने गीत में संजोई तुम !
स्मृति लौटकर जिसकी
अब रोज़ाना धूमिल हो रही है ।

बचे खट्टे फल और उबाऊ पन्ने दैनिक पत्र के…
आ खड़ा हो चुका हूँ तुम्हारे बिछोह की दूसरी ओर
जिसका बखान किसी के लिए भी आसान है…

मित्र , साँप की तरह नहीं, उस मरु में
छोटी टिड्डी सा , एक नन्हे कोंपल सा
बिना जाल के मछुआरे सा
मैं आज भी हूँ मौजूद ।

बिछोह
प्रेम की एक देह वासना है ।

छिटके बालू सा सूख गया है
मेरा हृदय,
लौटोगी क्योंकि
शोर करने लगेगी मरु में मेरी तन्हाई ।

मूल तमिल से अनुवाद : राधा जनार्दन