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बिजलियाँ, लपटें, आशियाँ और हम / महेश अश्क

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बिजलियाँ, लपटें, आशियाँ और हम।
हर तरफ़ फैलता धुआँ और हम।।

बोने को सौ हरे-भरे मौसम
काटने को उदासियाँ और हम।

ज़िन्दगी ठण्डे चूल्हे-चौके सी
दाँव देती कमाइयाँ और हम।

झाड़ियाँ झुटपुटे के अफ़साने
ख़ून के छींटे चूडिय़ाँ और हम।

पाँव के नीचे से खिसकती ज़मीं
पँख, परवाज़, आस्माँ और हम।

चेहरा-चेहरा जुलूस अपना-सा
दूर तक ख़ाली मुट्ठियाँ और हम।

लफ़्ज़ हक़ और लफ़्ज़ का मोहताज
अपने रँग में रँगी ज़ुबाँ और हम।

रात-दिन, रात-दिन की फोटो-प्रति
काग़जी फूल तितलियाँ और हम।

होंठ कुछ कहते आँख कुछ बुनती
एक ख़ामोशी दरमियाँ और हम।

आइने आपकी तरह के सब
अक्स-दर-अक्स किर्चियाँ और हम।

चीलें मण्डराती आस्मानों पर
घर का घर ओढ़े चुप्पियाँ और हम।।